Saturday 27 July 2013

ओलंपिक में सबसे आगे दौड़ रहे मिल्खा सिंह ने पीछे मुड़कर क्यों देखा?


मिल्खा सिंह से ये देश एक ही सवाल पूछता रहा है. खुद मिल्खा भी अपने आप से यही सवाल पूछते हैं. आखिर 1960 के रोम ओलंपिक के फाइनल में 400 मीटर की दौड़ में सबसे आगे चल रहे मिल्खा सिंह ने पीछे मुड़कर क्यों देखा. देखा और हार गए. 
मिल्खा सिंह 1960 के रोम ओलंपिक में जीत की पक्की उम्मीद के साथ गए थे. तोक्यो में आयोजित 1958 के एशियाई खेलों में उन्होंने 45.8 सेकेंड का विश्व रिकॉर्ड बनाया था. वे अमेरिका के ओटिस डेविस को छोड़कर लगभग सभी प्रतिद्वंद्वियों को हरा चुके थे. मिल्खा रोम के स्टेडियो ओलंपिको में जब दौड़ रहे थे तो वे सबसे आगे चल रहे थे, लेकिन उन्हें लगा कि वे जरूरत से ज्यादा तेज दौड़ रहे हैं. आखिरी छोर तक पहुंचने से पहले उन्होंने पीछे मुड़कर देखना चाहा कि दूसरे धावक कहां पर हैं. इसी वजह से उनकी रफ्तार और लय टूट गई. उन्होंने उस समय का विश्व रिकॉर्ड तोड़ते हुए 45.6 सेकंड का समय तो निकाला लेकिन एक सेकेंड के दसवें हिस्से से पिछड़कर वे चौथे स्थान पर रहे. डेविस ने 44.9 सेकेंड के साथ नया विश्व रिकॉर्ड बनाया और स्वर्ण पदक जीत लिया. इसके बाद मिल्खा ने जकार्ता में 1962 के एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीता लेकिन वे समझ गए कि अब वे अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कभी नहीं कर सकेंगे.
मिल्खा देश के बंटवारे के बाद दिल्ली के शरणार्थी शिविरों में अपने दुखदायी दिनों को याद करते हुए कहते हैं, ‘जब पेट खाली हो तो देश के बारे में कोई कैसे सोच सकता है? जब मुझे रोटी मिली तो मैंने देश के बारे में सोचना शुरू किया.’
भूख की वजह से पैदा हुए गुस्से ने उन्हें आखिरकार अपने मुकाम तक पहुंचा दिया. जब आपके माता-पिता को आपकी आंखों के सामने मार दिया गया हो तो क्या आप कभी भूल पाएंगे, कभी नहीं. यह बात मशहूर है कि मिल्खा ने पाकिस्तान जाने से इनकार कर दिया था क्योंकि उनके जेहन में नरसंहार की यादें ताजा थीं.
लेकिन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के समझने पर वे राजी हो गए. नेहरू को वे पिता समान समझते थे. मिल्खा कहते हैं, ‘पाकिस्तान में मुझे बहुत सम्मान मिला. जनरल अयूब खान ने मुझे फ्लाइंग सिख का खिताब दिया. मेरे मन में रंजिश तो बरकरार है लेकिन अब गुस्सा थूक चुका हूं मैं.’
मिल्खा के दिमाग में उनके माता-पिता की मौत के बाद जो बात सबसे ज्यादा घूमती है वह है ओलंपिक पदक से वंचित रह जाना. वे बताते हैं, ‘मैं सेमीफाइनल और फाइनल के बीच दो दिन तक बिल्कुल नहीं सोया था. मैं बस यही सोचता रहता था कि सारी दुनिया मुझे देख रही होगी.’ वे कहते हैं कि उनकी बस एक ही आखिरी ख्वाहिश है कि कोई भारतीय उस पदक को जीते, जो वे चूक गए थे. ‘दुर्भाग्य से मुझे उस स्तर का कोई भी खिलाड़ी नहीं दिखाई देता है.’ (सभार: आज तक  )



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